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भारतीय सनातन संस्कृतिमें संस्कारोंको सम्पन्न करने तथा उनकी विधियोंके अनुपालनकी विशेष महिमा है। संस्कार शब्दका सामान्य अर्थ है- विमलीकरण अथवा विशुद्धीकरण। जिस प्रकार किसी मलिन वस्तुको धो-पोंछकर शुद्ध-पवित्र बना लिया जाता है अथवा जैसे सुवर्णको आगमें तपाकर उसके मलोंको दूर किया जाता है, वैसे ही संस्कारोंके द्वारा जीवके जन्म-जन्मान्तरोंसे सम्बन्धित मलरूप कर्म-संस्कारोंका भी दूरीकरण किया जाता है। किसी दर्पणपर पड़ी हुई धूल आदि सामान्य मलको वस्त्र आदिसे पोंछना, हटाना या स्वच्छ करना मलापनयन अथवा दोषापनयन कहलाता है, फिर किसी रंग या तेजोमय पदार्थद्वारा उस दर्पणको विशेष चमत्कृत या प्रकाशमय बनाना गुणाधान या अतिशयाधान कहलाता है। इस प्रकार संस्कारमें मुख्यतः दो प्रकारकी क्रियाएँ होती हैं- एक है दोषापनयन और दूसरा है गुणाधान। संस्कार, संस्कृति और धर्मद्वारा मानवमें मानवता आती है, संस्कारोंसे मलिन अन्तःकरण विशुद्ध हो जाता है, यही कारण है कि सनातन धर्ममें गर्भमें आनेसे लेकर मृत्युपर्यन्त संस्कार किये जाते हैं। संस्कारोंसे शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि एवं निर्मलता तथा शास्त्रीय कर्मोंको करनेकी योग्यता प्राप्त होती है। इन संस्कारोंका प्रभाव विशेष रूपसे अन्तःकरणपर पड़ता है।

Upnayan-Sanskar-Paddati | उपनयन-संस्कार-पद्धति

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  • Publisher

    Gitapress

  • No. of Pages

    95

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