"...हवाई शब्दजाल व विदेशी लेखकों के अपच उच्छिष्ट का वमन करने में मुझे कोई सार नजर नहीं आता। आकाशगंगा से कोई अजूबा खोजने की बजाय पाँवों के नीचे की धरती से कुछ कण बटोरना ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगता है। अन्यथा इन कहानियों को गढ़नेवाले लेखक की कहानी तो अनकही रह जाएगी।... मैं निरन्तर बदलता रहता हूँ। परिष्कृत और संशोधित होता रहता हूँ। जीवित गाछ-बिरछों के उनमान प्रस्फुटित होता रहता हूँ। सघन होता रहता हूँ।"
प्रख्यात कथाकार विजयदान देथा (बिज्जी) के इस वक्तव्य के बाद केवल यह आग्रह ही किया जा सकता है कि हिन्दी के कथा-प्रेमी पाठक इस 'सपनप्रिया' संग्रह की अद्भुत और अद्वितीय कहानियाँ अवश्य पढ़ें।
सपनप्रिया | Sapanpriya
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Author
Vijaydan Detha
Publisher
Bhartiya Gyanpeeth
No. of Pages
295
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