दोपहर का समय था, चारों तरफ अंधेरा था। आकाश में तारे छिटके हुए थे। ऐसा सन्नाटा, छाया हुआ था, मानो संसार से जीवन का लोप हो गया हो। हवा भी बन्द हो गई थी। सूर्यग्रहण लगा हुआ था। त्रिवेणी के घाट पर यात्रियों की भीड़ थी ऐसी भीड़, जिसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती। वे सभी हिन्दू जिनके दिल में श्रद्धा और धर्म का अनुराग था, भारत के हर प्रांत से इस महान अवसर पर त्रिवेणी की पावन धारा में अपने पापों का विसर्जन करने के लिए आ पहुंचे थे, मानों उस अंधेरे में भक्ति और विश्वास ने अधर्म पर छापा मारने के लिए अपनी असंख्य सेना सजाई हो। लोग इतने उत्साह से त्रिवेणी के संकरे घाट की ओर गिरते-पड़ते लपके चले जाते थे कि यदि जल की शीतल धारा की जगह अग्नि का जलता हुआ कुंड होता, तो भी लोग उसमें कूदते हुए जरा भी न झिझकते?
कितने आदमी कुचल गए, कितने डूब गए, कितने खो गए, कितने अपंग हो गए, इसका अनुमान करना कठिन है। धर्म का विकट संग्राम था। एक तो सूर्यग्रहण, उस पर यह असाधारण अद्भुत प्राकृतिक छटा! सारा दृश्य धार्मिक वृत्तियों को जगाने वाला था। दोपहर को तारों का प्रकाश माया के पर्दे को फाड़कर आत्मा को आलोकित करता हुआ मालूम होता था। वैज्ञानिकों की बात जाने दीजिए, पर जनता में न जाने कितने दिनों से यह विश्वास फैला हुआ था कि तारागण दिन को कहीं किसी सागर में डूब जाते हैं। आज वही तारागण आंखों के सामने चमक रहे थे, फिर भक्ति क्यों न जाग उठे! सद्वृत्तियां क्यों न आंखें खोल दें!
कायाकल्प | Kayakalp
Author
Munshi Premchand
Publisher
Unique Traders
No. of Pages
296