उसमान । मैं तो स्वभाव से ही ऐसी हूँ। पीड़ित की सेवा करना मेरा धर्म है। न करने पर दोष है, करने पर कोई प्रशंसा नहीं, परन्तु तुम्हारा क्या है? जो तुम्हारा शत्रु है. रण में तुम्हारे गर्व को चूर करने वाला है. अपने हाथों जिसकी तुमने यह दशा की है, तुम जो रात-दिन उसकी इतनी सेवा कर रहे हो यह प्रशंसा की बात है। मैं तारीफ करती हूँ इसकी......
आयश तुम अपने अनुरूप ही सबको देखती हो। मेरा अभिप्राय उतना अच्छा नहीं है। तुम नहीं जानती कि जगतसिंह के बचने से हमारा कितना लाभ है। इनकी मृत्यु से हमारी क्या दशा होगी? युद्ध में मानसिंह से कम नहीं है। एक के बदले दूसरा आएगा। यदि यह जीवित रहकर हमारे कारागार में रहेंगे, तो मानसिंह हमारे हाथ में रहेंगे। वह अपने पुत्र की मुक्ति के लिए अवश्य हम लोगों के साथ संधि कर लेंगे। अकबर भी अपने सेनापति को प्राप्त करने के लिए संधि करने को उद्यत हो जायेंगे। यदि जगतसिंह के प्रति सद्व्यवहार द्वारा हम उन्हें अपने वश में कर सके, तो वह स्वयं भी हम से सन्धि के लिए प्रयत्न करेंगे। उनका प्रयत्न सफल होगा। यदि कुछ भी फल न हुआ तो हम जगतसिंह के लिए मानसिंह से अपार धनराशि प्राप्त कर सकेंगे। इस युद्ध से सफल होने की अपेक्षा जगतसिंह के जीवन से हम लोग अधिक लाभ उठा सकेंगे...
दुर्गेशनन्दिनी | Durgesh Nandini
Author
Bankimchandra Chattopadyay
Publisher
Unique Traders
No. of Pages
112