पिछले चार दशकों से कविता लिखते हुए तथा उम्र के उस पड़ाव पर पहुँचे हुए जिसमें अधिकांश कवि-लेखक अपनी पिछली कमाई की जुगाली करते नज़र आते हैं, विनोद कुमार शुक्ल अपनी सृजनशीलता से इस नए संग्रह में भी हमें अवाक् और हतप्रभ कर देते हैं। कुछ मतिमंद जो उन पर भाषाई खिलवाड़, चमत्कार, वक्रोक्ति, उलटबाँसी, शिल्पातिरेक या कलावादिता का आरोप लगाते हैं वे ज़रा इस संग्रह की हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था और तथा जैसी कविताएँ देखें जिनमें कवि की अपनी शैली की सारी ज़िदों का निर्वाह भी हुआ है और भारतीय समाज तथा मानवमात्र को लेकर पूरी सहानुभूति, करुणा और प्रतिबद्धता भी असंदिग्ध रूप से उजागर हैं। यह विनोद कुमार शुक्ल ही कह सकते हैं कि आदमी को जानना ज़रूरी नहीं है, उसकी हताशा को और उसके साथ चलने को जानना बहुत है। जो यह कहते हैं कि कवि हमारे यथार्थ का कोमलीकरण करता है वे देखें कि उसके कान दुकानदार द्वारा राशन लेनेवालों को धीरे से दी गई माँ-बहन की गाली सुन सकते हैं और फिर उसकी आँखें उस गाली से जन्मे उस लड़के को भी देख सकती हैं जो जुलूसवालों को ठीक वही गाली देता है।
Atirikt Nahin | अतिरिक्त नहीं
Author
Vinod Kumar Shukla
Publisher
Hind yugm
No. of Pages
133
























