महाराज को हमारे जैसे यदि दो-चार चाटुकार सामंत न मिलते तो उनकी बुद्धि का अजीर्ण हो जाता और उनकी हाँ में हाँ न मिलने से फिर भयानक बात की संग्रहणी हो जाती और निरीह प्रजा से अनेक विधानों से कर न मिलने के कारण उन्हें उपवास करके ही अच्छा होना पड़ता ।
जब चित्त को चैन नहीं, एक घड़ी भी अवकाश नहीं, शान्ति नहीं, तो ऐसा राज्य लेकर कोई क्या करे केवल अपना सिर पीटना है। वैभव केवल आडम्बर के लिए है। सुख के लिए नहीं। क्या वह दरिद्र किसान भी जो अपनी. प्रिया के गले में बाँह डालकर पहाड़ी निर्झर के तट पर बैठा होगा, मुझसे सुखी नहीं है? किसी भी देश के बुद्धिमान शान्ति के लिए सार्वजनिक नियम बनाते हैं, किन्तु वह क्या सबके व्यवहार में है? जिस प्रतारणा के लिए शासक दण्ड-विधाता है, कभी उन्हीं अपराधों को स्वयं करके दण्डनायक भी छिपा लेता है। धींगा-धींगा, और कुछ नहीं। राजा नियम बनाता है प्रजा उसको व्यवहार में लाती है। उन्हीं नियमों में जनता बँधी रहती है।
विशाख | Vishakh
Author
Jayshankar Prasad
Publisher
Pulkit Prakashan
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