1986 में 90 वर्ष की आयु में कृष्णमूर्ति की मृत्यु हुई, मेरी लट्यंस द्वारा लिखित उनकी वृहदाकार जीवनी के दो खण्ड 'द यिअर्ज ऑव अवेकनिंग' (1975) तथा 'द यिअर्ज ऑव फुलफिलमेंट' (1983) प्रकाशित हो चुके थे।तीसरा खण्ड 'दि ओपन डोर' 1998 में प्रकाशित हुआ।इन तीनों खंडों को मेरी लट्यंस ने 'द लाइफ एंड डेथ ऑव जे. कृष्णमूर्ति' नाम से एक ही पुस्तक में समेटा है। मेरी लट्यंस ही के शब्दों में 'मुझे वह वक्त याद नहीं है,जब मैं कृष्णमूर्ति को नहीं जानती थी।" थियोसॉफी द्वारा उद्घोषित नए मसीहा के रूप में जब युवा कृष्णमूर्ति की पहली बार इंग्लैंड आना हुआ था,तब से उनके अंतिम वर्षों तक के जीवन को मेरी लट्यंस ने एक मित्र के तौर पर देखा है और उनकी समग्र जीवन-यात्रा समझने का जतन किया है। 'कृष्णमूर्ति कौन या क्या थे?' इस प्रश्न के उत्तर का अन्वेषण उनके जीवन और उनकी मृत्यु के संदर्भ में इन पृष्ठों में किया गया है। कृष्णमूर्ति के अनुसार, उन्होंने जो कुछ कहा है,वह सभी के लिए समान रूप से प्रासंगिक है।हम स्वयं सत्य को खोज सकें,इसमें आने वाली हर बाधा से हमें मुक्त करना ही उनका उद्देश्य है।कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं और उनके जीवन में कहीं कोई फर्क नहीं है-अतएव उनका जीवन भी उनकी शिक्षा ही है; जीवन,जिसकी व्यापकता में मृत्यु भी समाविष्ट है। कृशमूर्ति की शिक्षाओं को समझने के लिए उनके जीवन की,उनकी मृत्यु की विशदता को जानना-समझना महत्वपूर्ण है।एक निर्वैयक्तिक व्यक्तित्व की अद्भुत गाथा....
जे. कृष्णमूर्ति | J. Krishnamurti
Author
Meri Lutyens
Publisher
Rajpal & Sons
No. of Pages
288