एक संवाद लगातार बना रहता है अकेली यात्राओं में। मैंने हमेशा उन संवादों के पहले का या बाद का लिखा था... आज तक। ठीक उन संवादों को दर्ज करना हमेशा रह जाता था। इस बार जब यूरोप की लंबी यात्रा पर था तो सोचा, वो सारा कुछ दर्ज करूँगा जो असल में एक यात्री अपनी यात्रा में जीता है। जानकारी जैसा कुछ भी नहीं... कुछ अनुभव जैसा.. पर ठीक अनुभव भी नहीं। अपनी यात्रा पर बने रहने की एक काल्पनिक दुनिया। मानो आप पानी पर बने अपने प्रतिबिंब को देखकर ख़ुद के बारे में लिख रहे हों। वो ठीक मैं नहीं हूँ... उस प्रतिबिंब में पानी का बदलना, उसका खारा-मीठा होना, रंग, हवा, सघन, तरल, ख़ालीपन सब कुछ शामिल हैं। इस यात्रा-वृत्तांत को लिखने के बाद पता चला कि असल में मैं इस पूरी यात्रा में एक पहेली की तलाश में था... जिसका जवाब यह किताब है। —मानव कौल
बहुत दूर, कितना दूर होता है | Bahut Door Kitna Door Hota Hai
Author
Manav Kaul
Publisher
Hind Yugm
No. of Pages
160
























