समय और भूगोल के खेल भी कैसे न्यारे होते हैं! ये खेल व्यक्ति और रचनाकार को एक ऐसी धरती पर ले जाते हैं जो उसकी अपनी नहीं है। इस विस्तार में ही यह अभूतपूर्व सफ़रनामा—‘बेहयाई के बहत्तर दिन’—आकार धारण करता है। खेल-खेल में साहित्य और भाषा के खेल भी जुड़ते हैं। इस पुस्तक में व्यंग्य और मार्मिकता एक विकल नवाचार में अन्वेषित होते हैं। अनदेखे चीन को शब्दों-दृश्यों में पाने-सिरजने की प्रक्रिया यहाँ स्वप्न-गद्य सदृश है। एक खोज है जो बराबर जारी है। कल्पना के सुनसान और यथार्थ के अनुमान में ‘साहित्य क्या है’ जैसे रूढ़ प्रश्न यहाँ नई आकुलता के साथ उपस्थित हैं। प्रमोद सिंह का गद्य विकट गद्य है। यह उदास बेचैनियों का पतनशील गद्य भी है। यह हिंदी की सीमाओं और संभावनाओं को एक साथ उद्घाटित करता है। भाषा में भाषा को खोजने के संघर्षों का रुख़ इस कृति में खिलंदड़ नज़र आते हुए भी गंभीर है। यह गंभीरता सारी छद्म गंभीरता को तार-तार करने की सामर्थ्य रखती है।
बेहयाई के बहत्तर दिन । Behayayi Ke Bahattar Din
Author
Pramod Singh
Publisher
Hind Yugm
No. of Pages
208