आदमी की तरफ़ मेरा नया संकलन है। इसकी एक विशेषता वे ग़ज़लें हैं जो मैंने क्लासिकल शायरों की ग़ज़लों के छन्द, रदीफ़ और काफ़ियों में लिखी हैं। इसका एक कारण है। मैं अतीत को बदलते वर्तमान के आईनों में जाँचना-परखना चाहता था, उन बुनियादों की खोज करना चाहता था जो समय की निरन्तरता को दर्शाती हैं और आज को बीते हुए कल की रोशनी में चलना सिखाती हैं। खुसरो और कबीर से दुआ डिबाइवी तक इन ग़ज़लों के माध्यम से मैंने ग़ज़ल विधा के इतिहास के तक़रीबन 600 वर्षों की यात्रा की है। इस यात्रा में मुझे इतिहास के हर मोड़ पर उस आदमी से ही मुलाक़ात हुई है जिसके लिए ज़मीन और आसमान के बीच नयी-नयी दीवारों का निर्माण किया गया है। पुराने शाइरों की तरह मैंने भी अपना रिश्ता उसी आदमी से जोड़े रखा है जो इन दीवारों के विभाजन का शिकार रहा है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है : पहले इस रिश्ते में मौत, ज़िन्दगी और कुदरत का दायरा बनता नज़र आता है, मेरे दौर तक आते-आते इसमें बढ़ती हुई जनसंख्या और इससे जुड़े तिजारती मसले ज़्यादा गहरे और बहुआयामी बन चुके हैं। झूठ तथा सच की पहली परिभाषाएँ आज की उलझी हुई समस्याओं के विश्लेषण करने में न सिर्फ़ असफल हैं, वे नये सन्दर्भों की खोज का भी मुतालिब करती हैं। मैंने इन ग़ज़लों के माध्यम से अपने जिस संसार को रचा है, वही इसमें शामिल कविताओं और दोहों में भी मिलता है। इस संसार में मैंने उस आम आदमी को कल और आज के आईनों में उतारने की कोशिश की है जो हमेशा से बेचेहरा और बेनाम है। मैंने अपने तौर पर इसको चेहरा और नाम देने का प्रयास किया है।
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