उसकी आयु लगभग तीस वर्ष की थी। गोरे वर्ण का बहुत सुन्दर युवक था। वह रमणी-मनोहर प्रतीत होते थे। मैं बिजली चमक के समान तुरन्त अनमनी सी हो उठी। शाक बर्तन लेकर तनिक देर खड़ी रही। मैं घूंघट के अन्दर से उन्हें देख रही थी। उसी समय उन्होंने मुंह उपर किया। उन्होंने देखा कि मै। घूंघट के अन्दर से उन्हें देख रही थी। मैंने जान-बुझकर अपनी इच्छा से उनके प्रति आंखों का कुटिल कटाक्ष नहीं मारा। ऐसा पाप इस हदय में नहीं था। मैं तो समझती हूं कि सीप भी जान-बूझकर स्वेच्छा से फण नहीं फैलाता। ऐसा लगता था कि वह कुटिल कटाक्ष से देख रहे थे। उन्होंने जरा हंसकर मुंह झुका लिया। उस हंसी को केवल मैं ही देख सकी। मैं सारा शाक उनकी थाली में डालकर चली आई।
मैं कुछ लज्जित और दुःखी हुई। मैं सधवा होकर भी जन्म से ही विधवा हो गई थी। ब्याह के समय केवल एक बार स्वामी का दर्शन हुआ था। आज ऐसे गहरे पानी में ककड़ी फेंकने से मुझे लगा कि लहरें उठीं। यह सोचकर मैं बहुत खिन्न हो उठी। मैंने मन-ही-मन नारी-जीवन को सैकड़ों बार धिक्कारा। मैनें स्वयं को भी हजार बार धिक्कारा ।
इन्दिरा राधारानी | Indira Radharani
Author
Bankimchandra Chattopadyay
Publisher
Nikita Prakashan
No. of Pages
112
























