तब केबल टी.वी. के धारावाहिक शुरू नहीं हुए थे और हिन्दी पत्रिकाओं में छपनेवाले लोकप्रिय धारावाहिक साहित्य-प्रेमियों के लिए आकर्षण और चर्चा का वैसे ही विषय थे, जैसे आज के सीरियल। चौदह फेरे जब 'धर्मयुग' में धारावाहिक रूप में छपने लगा तो इसकी लोकप्रियता हर किस्त के साथ बढ़ती गई। कूर्मांचल समाज में तो शिवानी को कई लोग चौदह फेरे ही कहने लगे थे। उपन्यास के रूप में इसका अन्त होने से पहले अहिल्या की फैन बन चुकी प्रयाग विश्वविद्यालय की छात्राओं के सैकड़ों पत्र उनके पास चले आए थे, 'प्लीज, प्लीज शिवानी जी, अहिल्या के जीवन को दुःखान्त में विसर्जित मत कीजिएगा।' कैम्पसों में, घरों में शर्तें बदी जाती थीं कि अगली किश्त में किस पात्र का भविष्य क्या करवट लेगा।
स्वयं शिवानी के शब्दों में..."मेरे पास इतने पत्र आए कि उत्तर ही नहीं दे पाई। परिचित, अपरिचित सब विचित्र प्रश्न पूछते हैं- 'क्या अहिल्या फलाँ है? कर्नल पाण्डे वह थे न?'...मेरे पात्र-पात्री कल्पना की उपज थे, उन्हें अल-फलाँ समझा गया।...इसी भय से गर्मी में पहाड़ जाने का विचार त्यागना पड़ा। क्या पता किसी अरण्य से निकलकर कर्नल साहब छाती पर दुनाली तान बैठें ?"
कूर्मांचल से कलकत्ता आ बसे एक सम्पन्न कुटिल व्यवसायी और उसकी उपेक्षिता परम्पराप्रिय पत्नी की रूपसी बेटी अहिल्या, परस्पर विरोधी मूल्यों और संस्कृतियों के बीच पत्नी है। उसका राग-विराग और उसकी छटपटाती भटकती जड़ों की खोज आज भी इस उपन्यास को सामयिक और रोचक बनाती है।
'जाने-माने लेखक ठाकुरप्रसाद सिंह के अनुसार, इस
उपन्यास की कथा-धारा का सहज प्रवाह और
आंचलिक चित्रकला के से चटख बेबाक रंग इस
उपन्यास की मूल शक्ति हैं।.
चौदह फेरे | Chaudah Phere
Author
Shivani
Publisher
Radhakrishan Prakashan
No. of Pages
134