भारतीय वैदिक सनातन संस्कृतिमें देवाराधना, देवोपासना और साधनाका सर्वोपरि महत्त्व है। आराधना-आराध्य और आराधक, उपासना-उपास्य और उपासक तथा साधना-साध्य और साधक- इस प्रकारकी त्रिपुटीमें सर्वथा अभेद सम्बन्ध है। वस्तुतः इसी साम्यावस्थाकी प्राप्ति और तादात्म्यकी स्थापना ही पूजा-आराधनाका मूल उद्देश्य है, देवपूजा सगुणसे निर्गुण एवं साकारसे निराकारतक पहुँचानेकी सोपान-परम्परा है। पूजामें मन्त्रोंद्वारा देवशक्तियोंका आवाहन किया जाता है- 'मन्त्राधीनाश्च देवताः' और फिर उनकी प्राणप्रतिष्ठा करके उन्हें गन्धपुष्पादि विविध उपचार प्रदान किये जाते हैं। देवशक्तियोंका मानवीकरण करके एक पूज्य अभ्यागत अतिथिकी भाँति उनकी सेवा-पूजा की जाती है और उन देवशक्तियोंसे अभीष्टकी प्राप्तिकी प्रार्थना की जाती है।
देवोत्थापनके ये मन्त्र वेदोंमें प्रतिष्ठित हैं। प्रतिपाद्य-विषयकी दृष्टिसे वेदमन्त्रोंके तीन विभाग यानी तीन काण्ड हैं- कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड। देवाराधनाका प्रत्यक्ष सम्बन्ध कर्मकाण्ड एवं उपासनाकाण्डसे है। वेदमन्त्रोंका अधिकांश भाग कर्मकाण्डमें पर्यवसित है और नब्बे प्रतिशतसे भी अधिक मन्त्रोंका पूजा-यज्ञ-यागादिमें विनियोग है। क्रियाकी प्रधानता होनेसे इन मन्त्रोंको कर्मकाण्डके मन्त्र कहा जाता है।
Panchang-Pujan-Paddati | पंचांग-पूजन-पद्धति
Publisher
Gitapress
No. of Pages
112
























