'यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्', श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण के ये वचन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। यज्ञ, दान और तपरूप कर्म किसी भी स्थिति में त्यागने योग्य नहीं हैं, अपितु कर्तव्य रूप में इन्हें अवश्य करना चाहिये। शास्त्रों में 'तप' के अन्तर्गत व्रतों की महिमा बतायी गयी है। सामान्यतः व्रतों में सर्वोपरि एकादशी व्रत कहा गया है। जैसे नदियों में गंगा, प्रकाशक तत्त्वों में सूर्य, देवताओं में भगवान् विष्णु की प्रधानता है, वैसे ही व्रतों में एकादशी व्रत की प्रधानता है। एकादशी व्रत के करने से सभी रोग-दोष शान्त होकर लम्बी आयु, सुख-शान्ति और समृद्धि की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही मनुष्य-जीवन का मुख्य उद्देश्य -'भगवत्प्राप्ति' भी होती है।
संसार में जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति भोगों की ओर रहती है, परंतु भगवत्संनिधि के लिये भोगों से वैराग्य होना ही चाहिये। संसार के सब कार्यों को करते हुए भी कम-से-कम पक्ष में एक बार हम अपने सम्पूर्ण भोगों से विरत होकर 'स्व' में स्थित हो सकें और उन क्षणों में हम अपनी सात्त्विक वृत्तियों से भगवच्चिन्तन में संलग्न हो जायँ, इसी के लिये एकादशी-व्रत का विधान है। 'एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि।'
Ekadashi-Vrat ka Mahatmya | एकादशी-व्रत का महात्म्य
Publisher
Gitapress
No. of Pages
176