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भारतीय संस्कृतिके मूलाधारके रूपमें वेदोंके बाद पुराणोंका ही स्थान है। वेदोंमें वर्णित अगम रहस्योंतक जन-सामान्यकी पहुँच नहीं हो पाती, परन्तु पुराणोंकी मंगलमयी, ज्ञानप्रदायिनी दिव्य कथाओंका श्रवण-मनन और पठन-पाठन करके जन-साधारण भी भक्तित्तत्त्वके अनुपम रहस्यसे सहज ही परिचित हो सकते हैं। महाभारतमें कहा गया है-पुराणसंहिताः पुण्याः कथा धर्मार्थसंश्रिताः।' (महाभारत, आदि० १।१६) 'अर्थात् पुराणोंकी पवित्र कथाएँ धर्म और अर्थको प्रदान करनेवाली हैं।' अध्यात्मकी दिशामें अग्रसर होनेवाले साधकोंको पौराणिक कथाओंके अनुशीलनसे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होती है। इसलिये भगवान्‌के दर्शनके लिये अथवा शारीरिक और मानसिक रोगकी निवृत्तिके लिये पुराणोंका पारायण करना चाहिये।

पंचम वेदके रूपमें पौराणिक ज्ञान सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीके द्वारा अभिव्यक्त हुआ-

इतिहासपुराणानि पञ्चमं वेदमीश्वरः।

सर्वेभ्य एवं वक्त्रेभ्यः ससृजे सर्वदर्शनः ॥ (श्रीमद्भा० ३।१२।३९)

'इतिहास और पुराणरूप पाँचवें वेदको समर्थ, सर्वज्ञ ब्रह्माजीने अपने सभी मुखोंसे प्रकट किया।' इसी दृष्टिसे कहा गया है-' पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणां स्मृतम्।' इनका विस्तार सौ करोड़ श्लोकोंका माना गया है। समयके परिवर्तनसे जब मनुष्यकी आयु कम हो जाती है और इतने बड़े पुराणका श्रवण-मनन मनुष्योंके लिये असम्भव हो जाता है, तब उनका संक्षेप करनेके लिये भगवान् स्वयं व्यासरूपमें अवतीर्ण होकर उन्हें अठारह भागोंमें बाँटकर चार लाख श्लोकोंमें सीमित कर देते हैं। पुराणोंका यह संक्षिप्त संस्करण ही यहाँ उपलब्ध है। कहते हैं स्वर्गादि लोकोंमें आज भी एक अ

Sankshipt Skandpuran | संक्षिप्त स्कन्दपुराण

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  • Publisher

    Gitapress

  • No. of Pages

    1372

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