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कर्ण, भीष्मजी के मारे जाने का समाचार सुनकर कुछ भयभीत हो जल्दी से उनके पास आया। इन्हें शर शय्या पर पड़े देख उसकी आंखों में आँसू भर आये। उसने गद्गद् कण्ठ से कहा, 'महाबाहु भीष्मजी ! जिसे आप सदा द्वेषभरी दृष्टि से देखते थे, वहीं मैं राधा का पुत्र कर्ण आपकी सेवा में उपस्थित है।' यह सुनकर भीष्मजी ने पलक उघाड़कर धीरे से कर्ण की ओर देखा। इसके बाद उस स्थान को सूना देख पहरेदारों को भी वहाँ से हटा दिया। फिर जैसे पिता पुत्र को गले लगाता है, उसी प्रकार एक हाथ से कर्ण को खींचकर हृदय से लगाते हुये स्नेहपूर्वक कहा—'आओ, मेरे प्रतिस्पर्धी! तुम सदा मुझसे लाग डाँट रखते आये हो। यदि मेरे पास नहीं आते तो निश्चय ही तुम्हारा कल्याण नहीं होता। महाबाहो ! तुम राधा के नहीं कुन्ती के पुत्र हो। तुम्हारे पिता अधिरथ नहीं, सूर्य है—यह बात मुझे व्यासजी और नारदजी से ज्ञात हुई है।

पूर्वकाल में तुम्हारे प्रति जो मेरा क्रोध था, उसे मैंने दूर कर दिया है। अब मुझे निश्चय हो गया है कि पुरुषार्थ से दैव के विधान को नहीं पलटा जा सकता। पाण्डव तुम्हारे सहोदर भाई हैं, यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहो, तो उनके साथ मेल कर लो। मेरे ही साथ इस वैर का अन्त हो जाय और भूमण्डल के सभी 'राजा आज से सुखी हों।'

कर्ण ने कहा- महाबाहो ! आपने जो कहा कि मैं सूतपुत्र नहीं, कुन्ती का पुत्र हूँ—यह मुझे भी मालूम है। किन्तु कुन्ती ने तो मुझे त्याग दिया और सूत ने मेरा पालन- पोषण किया है। आज तक दुर्योधन का ऐश्वर्य भोगता रहा हूँ, अब उसका त्याग करने का साहस मुझमें नहीं है। मेरे मन में यह विश्वास है कि मैं पाण्डवों को रण में जीत लूँगा। अब आप आज्ञा दें। आपकी आज्ञा लेकर ही युद्ध करने का मेरा विचार है।

अभागा कर्ण | Abhaga Karn

SKU: 9789382774242
₹225.00 नियमित मूल्य
₹191.25बिक्री मूल्य
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  • Author

    Hari Singh

  • Publisher

    Rashtriya Prakashnalay

  • No. of Pages

    159

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