हमारी बस्ती के अनगिनत दलित हजारों दुख-दर्द अपने अन्दर लिए मुर्दहिया में दफन हो गए थे। यदि उनमें से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती, उसका शीर्षक 'मुर्दहिया' ही होता ।
'मुर्दहिया' का पहला संस्करण 2010 में हिन्दी समाज के सामने आया था, और तब किसी ने सोचा नहीं था कि कुछ ही समय में यह आत्मकथा न सिर्फ दलित हिन्दी साहित्य में, बल्कि पूरे हिन्दी जगत में एक मानक रचना के रूप में स्थापित हो जानेवाली है।
अपनी सृजनात्मकता के लिए इसे दलित आत्मकथाओं की धारा में एक युगान्तरकारी कृति माना गया और अपनी विश्व दृष्टि के विस्तार तथा औपन्यासिक वितान के चलते एक ऐसी साहित्यिक उपलब्धि जिस पर कोई भी भाषा गर्व कर सकती है।
जाति, वर्ण, अशिक्षा और निम्न उच्च की अनेक विकृतियों में चरमराते भारतीय समाज की यह कथा लेखक की कलम से तब उतरी जब वह गाँव की मुर्दहिया से लेकर शहरों महाशहरों और ठेठ निरक्षरों से लेकर सर्वज्ञ विद्वानों तक से प्राप्त अनुभवों तथा अपने अध्यवसाय से इतना परिपक्व हो चुका था कि अपनी देह आत्मा के बीच से होकर गुजरी पीड़ाओं को बुद्ध की सम-दृष्टि और विराग के साथ देख सके, कह सके।
डॉ. तुलसी राम ने अपनी आत्मकथा के इस पहले खंड में सिर्फ वही नहीं लिखा जिसकी अपेक्षा दलित मूल के आत्मवृत्तान्त लेखकों से की जाती है, बल्कि वह लिखा जिसे एक जर्जर समाज की असलियत का उत्खनन कहा जा सकता है, और जिसको पढ़ना सिर्फ साहित्य नहीं, समाजशास्त्र की सीमाओं तक जाता है।
और यह उन्होंने प्रतिशोध की कुंठित हदों में नहीं सृजनात्मकता की अछोर भूमि पर किया, जहाँ समाज अपने चेहरे के दागों को भी देख सकता है और अपनी निगाह के इकहरेपन को भी।
मुर्दहिया | Murdhiya
Dr. Tulsi Ram