"...परमात्मा के प्रति हम ऋणी हैं। माता-पिता के प्रति हम ऋणी हैं। अपनी पत्नी के प्रति हम ऋणी हैं।... जब तक कम-से-कम माता-पिता का ऋण अदा नहीं किया जाता, तब तक कोई भी कार्य सन्तोषजनक रूप से किया जाना संभव नहीं है।... हरीश ने अपनी पत्नी को त्याग दिया है और यहाँ रहता है। परन्तु यदि उसकी पत्नी के भरण-पोषण की सुव्यवस्था न होती तो मैं उसे एक दुष्ट आदमी कहता।... बहुत से व्यक्ति हमेशा शास्त्र-वाक्यों की दुहाई देते रहते हैं, परन्तु उनके कथन व कार्यों में कोई मेल नहीं होता। रामप्रसन्न कहता है, मनु ने कहा है कि साधुओं की सेवा करो। परन्तु उसकी माँ भूखी मर रही है और अपने पेट की ज्वाला को बुझाने के लिए दर-दर भीख माँगने को मजबूर है!... यह देखकर मुझे गुस्सा आता है! माँ यदि पतित भी हो, तो भी उसका त्याग नहीं करना चाहिए।... जब तक माता-पिता अभावग्रस्त व दुःखी हैं, तब तक भक्ति के अभ्यास से कोई लाभ नहीं। "
रामकृष्ण परमहंस । Ramkrishna Paramhans
Author
Romain Rolland
Publisher
Lokbharti Prakashan
No. of Pages
238