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पुस्तक का 'दशार्क' नाम विचार से नहीं, संयोग से बना। आशय बाद में निकाला गया। हुआ यह कि एक बन्धु ने कहा, दस कहानियाँ लिखकर देनी हैं, दीजिए वचन। वचन देने में क्या कठिनाई थी, पर चेता दिया कि वचन के पूरे होने की बात अलग है। भला पूरा वह क्या होना था। पर दिमाग चल पड़ा। दश तो खैर नाम में है ही, और अर्क किरण को कहते हैं, धूप एक है, किरण असंख्य। सोचा कि चलो दस कहानियाँ ऐसी दी जाएँ कि वे दस हों, पर एक भी हों। इसलिए नाम वह 'दशार्क' गाँठ बनकर मन में बैठ गया। गाँठ इसलिए कि उस शब्द के अन्त में 'शार्क' की ध्वनि है। 'शार्क' से एक साथ दारुण-सा चित्र उभर पड़ता है। शब्द का सूझना था कि तय हो गया 'शार्क' को अवतरित करना होगा।

तय हुए पच्चीस वर्ष तो हुए होंगे। ले-देकर अवतरण की घड़ी अब आयी है। यदि छवि में शार्क के दर्शन पाठक को न प्राप्त हों तो दोष मेरा न माना जाये। उद्दिष्ट तो शार्क को ही उपस्थित करना था।

ऊपर के शब्द सन् 1979 के सितम्बर के आरम्भ में लिखे गये थे। अब 1985 है। मेरे लिखने का ये ही ढंग रहा है। बँध के लिखना हुआ ही नहीं है कभी। न इसका विचार हुआ।

दशार्क । Dashark

SKU: 9789326352468
₹200.00 Regular Price
₹190.00Sale Price
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Out of Stock
  • Author

    Jainendra Kumar

  • Publisher

    Bhartiya Gyanpeeth

  • No. of Pages

    235

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