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सहजोबाई (1725-1805 ई.) मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन की एक महत्त्वपूर्ण संत-भक्त कवयित्री थीं लेकिन हिन्दी में इनके जीवन और काव्य की जानकारियाँ बहुत कम उपलब्ध हैं जिसके कारण अधिकतर लोग इनसे परिचित नहीं हैं। सहजोबाई उच्चकोटि की कवयित्री और दार्शनिक नहीं हैं लेकिन जिस सीधे, सहज और सरल ढंग से अपनी बात कहती हैं वह उन्हें बाकी संत-भक्त कवियों से अलग और ख़ास बनाता है। उनकी एक और विशेषता है उनकी गुरु-भक्ति। गुरु के सम्बन्ध में उनकी धारणा है कि - ‘गुरु न तजूँ हरि को तज डारूँ’ अर्थात् गुरु को नहीं छोड़ूँगी, भले ही इसके लिए ईश्वर को छोड़ना पड़े। सादगी, सरलता और सहजता उनके जीवन और वाणी की बहुत मुखर और आकर्षक विशेषताएँ हैं। उनको ‘सादगी का सार’ कहा गया है।

इस पुस्तक का चयन व संपादन माधव हाड़ा ने किया है, जिनकी ख्याति भक्तिकाल के मर्मज्ञ के रूप में है। मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष माधव हाड़ा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फ़ैलो रहे हैं। संप्रति वे साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली की साधारण सभा और हिन्दी परामर्श मंडल के सदस्य हैं।

सहजोबाई । Sahjobai

SKU: 9789389373820
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  • Author

    Madhav Hada

  • Publisher

    Rajpal and sons

  • No. of Pages

    105

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