भारतीय आलोचना में सदा नवीन उन्मेष होता रहा है। उसमें नए-नए स्कंध निकलते रहे हैं और निकल सकते हैं। जो यह समझते हैं कि रसों की संख्या नौ ही है, जो यह समझते हैं कि अलंकारों का स्वरूप नियत है, उन्हें भारतीय आलोचना का इतिहास देखना चाहिए। उन्हें पता चलेगा कि किस प्रकार उनकी संख्या बढ़ती रही है और किस प्रकार उनमें नूतनता का समावेश होता रहा है। यह आलेचना आज भी काम की है। यदि सारे समाज को वह जैसा है वैसा ही उसे सामने रखकर प्रयोग करना है अथवा यदि उसमें किसी प्रकार का वैषम्य हो गया है और उसे बदलना है तो रसदृष्टि आज भी काम दे सकती है। जो इसे बिना पढ़े केवल यह कहने के अभ्यासी हो गए हैं कि वह पुरानी पड़ गई है, वे वस्तुतः अपनी अज्ञानता का ही परिचय देते हैं। रस द्वारा वृत्तियों का परिष्कार होता है। नूतन मनोविज्ञान जिस परिष्कार या परीवाह की चर्चा करता है वह अपने ढंग से रसवादियों को स्वीकृत है। हाँ, काव्य का पुरुषार्थ केवल अर्थ यहाँ नहीं माना गया, केवल काम नहीं माना गया। एकांगी दृष्टि से शास्त्र का विवेचन यहाँ हुआ ही नहीं। चतुर्वर्गफल प्राप्ति काव्य का भी लक्ष्य है। यह फलप्राप्ति सरलतापूर्वक हो सकती है साहित्य से और अन्य मतवालों को भी उसकी प्राप्ति हो सकती है। जो लोग साहित्य की आर्थिक भूमिका का विचार करते हैं वे कर्ता को तो ध्यान में रखते हैं, पर श्रोता को भूल जाते हैं। इसलिए उनका विचार और भी एकांगी हो जाता है।
समय से मुठभेड़ | Samay Se Muthbher
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Author
Adam Gondavi
Publisher
Vani Prakashan
No. of Pages
107