आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी उन विरल रचनाकारों में थे, जिनकी कृतियाँ उनके जीवन काल में ही क्लासिक बन गई। अपनी जन्मजात प्रतिभा के साथ उन्होंने शास्त्रों का अनुशीलन और जीवन को सम्पूर्ण भाव से जीने की साधना करके वह पारदर्शी दृष्टि प्राप्त की, जो किसी कथा को आर्य वाणी की प्रतिष्ठा देने में समर्थ होती है।
'अनामदास का पोथा अथ रैक्व आख्यान' आचार्य द्विवेदी की आर्य वाणी का अपूर्व उद्घोष है। संसार के दुख-दैन्य ने राजपुत्र गौतम को गृहत्यागी, विरक्त बनाया था लेकिन तापस कुमार रैक्व को यही दुख-दैन्य विरक्ति से संसक्ति की ओर प्रवृत्त करते हैं। समाधि उनसे सध नहीं पाती, और वे उद्विग्न की भाँति उठकर कहते हैं: "माँ, आज समाधि नहीं लग पा रही है। आँखों के सामने केवल भूखे नंगे बच्चे और कातर दृष्टिवाली माताएँ दिख रही हैं। ऐसा क्यों हो रहा है, माँ?" और माँ रैक्व को बताती हैं : " अकेले में आत्माराम या प्राणाराम होना भी एक प्रकार का स्वार्थ ही है।" यही वह वाक्य है जो रैक्व की जीवन-धारा बदल देता है और वे समाधि छोड़कर कूद पड़ते हैं जीवन-संग्राम में।
'अनामदास का पोथा अथ रैक्व आख्यान' जिजीविषा की कहानी है। "जिजीविषा है तो जीवन रहेगा, जीवन रहेगा तो अनन्त सम्भावनाएँ भी रहेंगी। वे जो बच्चे हैं, किसी की टाँग सूख गई है, किसी का पेट फूल गया है, किसी की आँख सूज गई है- ये जी जाएँ तो इनमें बड़े-बड़े ज्ञानी और उद्यमी बनने की सम्भावना है।" तापस कुमार रैक्व उन्हीं सम्भावनाओं को उजागर करने के लिए व्याकुल हैं, और उसके लिए वे विरक्ति का नहीं, प्रवृत्ति का मार्ग अपनाते हैं।
अनामदास का पोथा । Anamdas Ka Potha
Author
Hazariprasad Dwivedi
Publisher
Rajkamal Paperbacks
No. of Pages
236