" पर शालू मैं मूर्ति की तरह उन्नत, अटल तो बाहर से थी, अंदर से तो शिथिल, थकी, एकाकी ही थी। हाँ बिल्कुल एकाकी! फिर एक दिन मैं भी उत्सुकता जन्य दैहिक स्पर्श से दीप्त हो, उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर बैठी। अपने आचरण के रेशे रेशे उधेड़ दिए। मजबूत चरित्र के होते हुए भी देह के राग, आलाप और सुर में खो गई। उसके आकर्षण में बिंध गई। उस स्वप्निल आवेग में अलग संसार रचा बैठी। "
अनुगामी । Anugami
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Author
Hansa Bishnoi
Publisher
Rajasthani Granthagar
No. of Pages
112
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